देख तमाशा दुनिया का, सुनके ताने अपनों के,
रोंध के खुद की खुशियों को, तोड़ के तारे सपनो के,
जी तो रही हूँ, पर शायद मैं खुद में ज़िन्दा नहीं।
सोच के सबके बारे में , मैंने खुद की मुस्कुराहट ही खोदी,
नहीं संभल रहे थे रिश्ते पुराने, नए की बुनियाद क्यों बोदी ?
पूँछ सवाल स्वयं से, मैं अपने में ही रो लेती हूँ,
जी तो रही हूँ, पर शायद मैं खुद में ज़िन्दा नहीं।
आँखों से आँसू न छलक रहे, ना ही रही लब पर मुस्कान,
दिल में दर्द की गिनती इतनी, जितने फलक में नक्षत्र (गिनती) समान,
टूटे शब्दों की माला,मैं स्वरुप में ही पिरो लेती हूँ,
जी तो रही हूँ, पर शायद मैं खुद में ज़िन्दा नहीं।
आत्म-सम्मान को मेरे, नाम दिया गया अभिवृत्ति,
विश्वास को अहंकार बता कर, क्षति कर दी मेरी मति,
बंधन – प्यार जैसे शब्दों से, आत्मा को आशा की गोली दे देती हूँ,
जी तो रही हूँ, पर शायद मैं खुद में ज़िन्दा नहीं।
डॉ सोनल शर्मा